Summary: | भाषा के विषय में यह सर्वप्रथित है कि प्राणी के भाव-विचारों के सम्प्रेषण में भाषा की अन्यतम भूमिका है जो किसी शब्दावली के माध्यम से वाणी के रूप में प्रकट होती है। मनुष्य पर भाषा का प्रभाव उसके परिवेश के अनुसार दीख पड़ता है। एक भाषा से दूसरी भाषा पर भी प्रभाव देखने को मिलता है जो देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप उचित ही है। सर्वविदित है कि संस्कृत और फ़ारसी भारत-ईरानी शाखा की अत्यंत समृद्ध सह-भाषाएँ हैं तथा दोनों भाषाओं में जितनी भाषिक एवं व्याकरणिक विशेषता दृष्टिगत होती है उतनी अन्य भाषा एवं भाषा-परिवारों में नहीं दिखाई देती। जिसकी छाप पारसीककवि मौलाना जलालुद्दीन रूमी की साहित्यिक शब्दावली में भी दृष्टिगोचर होती है। मौलाना रूमी ने अपनी कृतियों में अनेकशः ऐसे पदों का प्रयोग किया है जिनका मूल संस्कृत में देखा जाता है जो कि उदाहरणगत भाषिक-विवेचन से स्पष्ट हो जाते हैं जैसे; मत्त - मस्त, क्षीर - शीर, दन्त - दन्दान्, आवाचि>आवाशि - आवाज़, छाया>शाया - साया इत्यादि। जिनमें कुछ पद तो संस्कृतवत् ही हैं और कुछ पदों का फ़ारसीकरण रूप प्रयोग किया गया है। यद्यपि प्रत्येक भाषा में अपनी लिपि अथवा भाषिक प्रवृत्ति के कारण ऐसी विशेषता देखी जाती है कि एक ही शब्द के उच्चारण अथवा लेखन में विभेद भी मिलता है।
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